वृद्धावस्था में कांटों भरी राह

मैं रोज सुबह जोधपुर के अशोक उद्यान में घूमने जाता हूँ, वहाँ एक बार ऐसे व्यक्ति से | परिचय हुआ जो बहुत दुःखी था। जब हम दोनों में कालान्तर में घनिष्ठता बढ़ी तो उन्होंने मुझे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव की कथा सुनाई।

 

उनके तीन पुत्रियाँ व एक पुत्र है। वे स्वयं सरकारी सेवा से निवृत्त हो चुके हैं। तीनों बेटियाँ शादी के बाद ससुराल रहती हैं। उनका लड़का सीधा-साधा व दिमागी कमजोर था। उन्होंने लड़के की शादी के लिए महाराष्ट्र प्रदेश से एक कमजोर वित्तीय स्थिति के परिवार की लड़की से शादी करा दी। लड़की के घर वालों को लड़के के बारे में सब बता दिया था और वादा किया था कि मैं सरकारी नौकरी में हूँ। अतः इसके खाने-पीने तथा जीवन की मूलभूत सुविधा मिलेगी। लड़की के नाम से दस लाख की एफ. डी. करा दूंगा, ताकि ब्याज रूपी पेंशन इसे हर माह मिलती रहेगी।

 

बच्चे की शादी हो गई और उसके एक लड़की व एक लड़का भी हो गया। लेकिन 40-42 वर्ष की उम्र में ही बीमार होकर चल बसा। अब पुत्रवधु व उसके एक पोता एक पोती घर में उनके साथ रह गए।

 

एक-दो साल बाद बेटियों ने पिताजी को गुमराह करना शुरू किया कि हमारी भाभी बदचलन है, इसलिए इसको घर से निकाल दो। उन्होंने बेटियों की बातों में आकर पुत्रवधु व पोते-पोती को कुछ आवश्यक घर का सामान देकर घर से बाहर निकाल दिया। बेचारी क्या करती उसने जोधपुर शहर के दूर की कॉलोनी में मकान किराए पर लिया और फिर ब्यूटी पार्लर में जाकर काम करने लगी और बड़ी मुश्किल से जीवन यापन करने लगी। पीछे बेटियों ने पापाजी को समझाया कि आप वृद्धाश्रम में चले जाओ और यह मकान बेच दो और आधा पैसा अपने पास तथा आधा पैसा हम बेटियों को बांट दो। लेकिन बाहर निकाली गई बहू ने इसे नहीं माना। उपरोक्त भाई साहब तीन-चार साल तक वृद्धाश्रम में अपने स्वयं के मकान में ताला लगाकर दुःख पाते रहे।

 

एक दिन दुःखी मन से वह सज्जन मेरे घर आए और उपरोक्त वृत्तान्त सुनाकर कहने लगे कि आप मेरी पुत्रवधु से मिलो और पता करो कि जैसे मेरी बेटियाँ बहू को दुश्चरित्र बता रही है, क्या वाक्य में वह दुश्चरित्र हो गई है? मैं उनके आग्रह पर उनकी पुत्रवधू के घर गया, जहाँ वह दो कमरों के हिस्से में किराए के रूप में रह रही थी। उसकी विस्तार से व्यथा सुनी और उसने बताया कि मैं पापाजी के द्वारा घर से निकालने के बाद इतनी दुःखी हुई कि आत्महत्या कर लूं, लेकिन इन दो बच्चों के भविष्य के लिए जिंदा रहने की हिम्मत की। मैं उस दिन बहु से बात कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वह दुश्चरित्र नहीं और इस मामले में मेरे साथी ही दोषी है। मैंने उस बहू से यह आश्वासन जरूर लिया कि अगर तुम्हारे पापाजी (ससुरजी) तुम्हें वापस अपने मकान में शिफ्ट करें तो वह उनकी सेवा करेगी और जो कष्ट उसने पाया है। उसके लिए अपने ससुरजी को माफ कर देगी।

 

मैंने उपरोक्त साथी को वृद्धाश्रम छोड़कर पुराने निवास स्थान पर शिफ्ट होने, मकान न बेचने तथा बहू, पोते-पोती को वापस अपने घर लाने की सलाह दी।

 

फिर उस साथी ने इस पर चार-पाँच महीने गहन मंथन किया और उसके बाद बह से माफी मांग वापस घर ले आए। बहू स

 

दो साल ठीक निकले फिर 81 वर्ष की उम्र में बीमारी शुरू हुई और घर से हॉस्पिटल के चक्कर चलते रहे। कुछ समय के लिए बीच बीच में हॉस्पिटल में भर्ती भी रहना पड़ा। तब उनकी उपरोक्त पुत्र वधू ने उनकी देखभाल व सेवा में कोई कमी नहीं रखी। मृत्यु के सात आठ दिन पहले मुझे फोन पर सूचना देकर उनके घर बुलाया और कहा कि बेटियों के कहने पर बहु के साथ दुर्व्यवहार किया, उसका मुझे भयंकर अफसोस है, फिर वह परलोक सिधार गए। मृत्यु के बाद में उस पुत्र वधु ने बताया कि पापाजी अपनी अलमारी में मेरे नाम एक पत्र छोड़कर गए हैं, जिसमें उन्होंने पुनः माफ करने के लिए लिखा। जीवन में कैसे-कैसे पल आते हैं कोई नहीं जानता।

 

-Er. Tarachand

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The road is full of thorns in the Old days

वृद्धावस्था में परिवार का सुख

करीब 50 वर्ष पूर्व मैंने राजस्थान राज्य विद्युत मंडल जोधपुर में कनिष्ठ अभियन्ता पद पर कार्य शुरू किया। उस समय मेरी श्रीमती जी जब अपने पीहर तथा मेरे माता-पिता से मिलने गांव जाती, उस समय मैं एक होटल में खाना खाने जाता था। खाना खाते वक्त होटल के मालिक अग्रवाल साहब से गपशप होती रहती थी। कालान्तर में वे मेरे एक दोस्त बन गये और पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हो गये, यह क्रम उनके मृत्यु तक चला।

 

उनके तीन पुत्र, तीन पुत्रवधुएँ तथा पोते-पोती दो खण्ड के मकान में साथ साथ रहते थे। बच्चों को व्यापार सिखाया और धीरे-धीरे तीनों बच्चों को अलग-अलग धंधा शुरू करवा दिया। उसी घर में मेरे मित्र अपनी पत्नी के साथ भूतल पर रहते तथा भूतल के पिछले हिस्से तथा प्रथम मंजिल पर क्रमशः तीनों पुत्र अपने परिवार के साथ रहते थे। उनके घर में रसोईघर तीनों पुत्रों के अलग-अलग थे। मेरे मित्र अग्रवाल व उनकी पत्नी के लिए खाना तीनों बहुएं महीनेवार इंतजाम करती तथा उसी महीने में कोई दोस्त या मेहमान अग्रवाल साब से मिलने आता, तो जिस बहू की बारी होती, तुरन्त चाय नाश्ता का इंतजाम कर देती थी। इस तरह मित्र व श्रीमती का समय कमरे में आराम से कटता था।

 

कालान्तर में मित्र की श्रीमतीजी का बीमारी के बाद देहावसान हो गया तो अकेले अग्रवाल मित्र अपने कमरे में स्नान ध्यान करते और समय पर बहुएं अपनी बारी के हिसाब से चाय नाश्ता व खाने-पीने की व्यवस्था समय-समय पर कर देती, मित्र को कभी किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई।

 

एक दिन मैं मित्र से मिलने उनके कमरे में गया, वो स्नान करके कमरे में आये ही थे। सोफे पर पेंट-शर्ट पड़ी थी, जिसे वे पहनना चाहते थे। इसी दरम्यान एक बहू (जो कि एक डॉक्टर की बेटी है) कमरे में आई और सोफे पर पड़ी ड्रेस ले जाने लगी। मेरे मित्र ने कहा, कल दो घंटे के लिए ही तो यह ड्रेस पहनी थी। बहू ने कहा, पापाजी, यह मुझे मैली दिखती है, इसलिये मैं धोने ले जा रही हूं।

 

इसी तरह कुछ दिनों बाद मैं मित्र से मिलने गया तो देखता हूं कि कमरे में दो बहुएं दो नई ड्रेस के कपड़े लेकर खड़ी थी और उनसे नये कपड़े सिलवाने के लिए कह रही थी। मेरे मित्र ने कहा, मेरे पास पुरानी बहुत सारी ड्रेसेज है। बहुओं ने कहा, मम्मी जी के देहावसान के बाद अब पुरानी ड्रेस न पहन कर हमारी पसन्द की ड्रेस पहनेंगे। आप पुरानी सही फीटिंग वाली ड्रेस दे दीजिए, अभी टेलर को नये ड्रेस सिलवाने जा रही हैं। इसी तरह करीब 80 वर्ष का जीवन सफर आराम से बीतने लगा।

 

उसके बाद कालान्तर में बीमारियों ने घेरना शुरू किया, तो बेटों ने पिताजी को समय-समय पर डॉक्टर के पास ले जाना, । दवाईयां लाना तथा जरूरत पर हॉस्पिटल में भर्ती करवा कर चिकित्सा उपलब्ध कराते रहते। जब घर में रहते तो उनके कमरे में एक-एक लड़का बारी-बारी से रात को सोता था। दिन में बहुओं ने समय-समय पर डॉक्टर की पर्ची के अनुसार दवाईयां देना बखूबी निभाया। 85 वर्ष के उम्र के बाद ज्यादा बीमार होने पर हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया, जहाँ रात को एक बेटा रात भर रहता और दिन में बहुएँ बारी-बारी हॉस्पिटल में रहकर पापाजी की तन्मयता से सेवा करती थी।

 

उनके देहावसान के करीब पांच दिन पूर्व उनके एक लड़के ने हॉस्पिटल से मुझे फोन किया कि पिताजी की तबीयत नासाज है और आपको पिताजी ने तुरन्त मिलने के लिए बुलाया है।

 

मैं उसी हॉस्पिटल में तुरन्त गया और बेटों को ढांढस बंधाया। फिर अग्रवाल मित्र ने मुझे नजदीक बुलाया और कहा, मेरे बेटों, बहुओं ने मेरी खूब सेवा की है और मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूँ। मेरा आशीर्वाद है बेटे-बहुएं साथ रहे और उन्नति करें। मैं आशा करता हूं कि आपका प्यार बच्चों के साथ बना रहेगा। भगवान का आशीर्वाद है कि अग्रवाल मित्र के करीब दस साल देहावसान के बाद भी उनके पुत्र व बहुएं मुझसे सगे चाचाजी की तरह व्यवहार आज भी कर रहे हैं। अब आपको यकीन हो गया होगा कि मेरे अग्रवाल मित्र को वृद्धावस्था में कितना परिवार का सुख मिला।

 

एक दिन मैंने यह प्रसंग अपने साथी श्री कन्हैयालाल को बातों बातों में बताया तो उसने कहा, मेरे पास वाले मकान में एक जैन साहब रहते हैं, उनके भी तीन पुत्र व तीन पुत्रवधुएँ तथा पोते पोती साथ रहते थे। उनके घर के बाजू का दरवाजा मेरे घर के बाजू के दरवाजे के सामने खुलता है। जिस वजह से उनकी घर की गतिविधियाँ हमारे घर से दिखती रहती है।

 

मेरे पड़ौसी जैन साहब का देहावसान बीमारी के कारण तीन वर्ष पूर्व हो चुका है। बेटों-बहुओं ने पिताजी की सेवा तन मन-धन से की थी। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि परिवार हमारे पड़ौस में करीब 10 सालों से रह रहा है, लेकिन इस दरम्यान जैन साहब व उनकी पत्नी, बेटे बहुओं में आपस में कभी झगड़ा होते नहीं देखा। घर में एक रसोई जहां सबका खाना बनता है। तीनों बेटों ने अपने पिताजी की दुकान के संचालन की जिम्मेदारी आपस में बांट रखी थी। बहुओं ने घर की सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, गमलों में पानी देना, माताजी को दवाइयाँ देना आदि कार्य आपस में तरह बांट रखा है, कि बिना हा-हुल्लड, बिना बाहर आवाज आये, निपटा देती है। बहुएँ आपस में बहनों जैसा व्यवहार करती है और सासूमाँ से अपनी माताजी जैसा व्यवहार करती है। बहुएँ व बेटे माताजी को बीमारी के समय डॉक्टर को दिखाना, दवाईयां समय पर देना, नाश्ता, खाना समय पर उपलब्ध कराती है और सासूजी उनके व्यवहार से पूर्ण सन्तुष्ट है। साथी कन्हैयालाल ने भी अपने पड़ौसी की इस तरह की हकीकत बताई, तो मेरे साथ आपको भी आनन्द आ गया होगा। देखा आपने जैन साहब की पत्नी को किस तरह वृद्धावस्था में परिवार का सुख मिल रहा है।

 

प्रिय पाठक बंधु ! आपके परिवार में बेटों-बहुओं ने इस तरह की व्यवस्था कर रखी है तो मेरी ओर से बधाई तथा आपके बेटे-बहुओं को आशीर्वाद। अगर किसी संयुक्त परिवार में इस तरह की व्यवस्था नहीं है तो ज्यादा देर नहीं हुई है, आपके संयुक्त परिवार में बेटों-बहुओं को यह लेख पढ़ावे व मेरी इच्छा जाहिर करे कि वे भी उपरोक्त अग्रवाल व जैन परिवार की तरह घर का वातावरण तैयार करें ताकि वे सब सुखी व प्रसन्न रहें और आप व आपकी धर्मपत्नी को वृद्धावस्था में दुःखी होने की नौबत नहीं आयेगी, न ही वृद्धाश्रम ढूंढने की। आपका घर स्वर्ग बन जायेगा । 

 

-Er. Tarachand

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Family Happiness in Old Age

संघर्षशील पीढ़ी

दिन सज्जनों की उम्र इस समय 75 से 85 वर्ष तक की है, सरकारी नौकरी कर चुके हैं और वे जिन्होंने ग्रामीण परिवेश से निकलकर शहरों की तरफ रुख किया है, उस पीढ़ी को मैं संघर्षशील पीढ़ी मानता हूँ, जिनका ब्यौरा निम्न प्रकार है

 

गाँवों में पिताजी पुश्तैनी धंधा करते थे और बहुत कम आमदनी के बावजूद इस पीढ़ी के बच्चों को प्राईमरी तथा हाई स्कूल की पढ़ाई से कराकर इस योग्य बनाया कि ये उच्च शिक्षा के लिए शहरों की तरफ रुख कर सकें। सबसे पहले शहरों में पढ़ाई के लिए रहना, खाना, पौना तथा कॉलेज का खर्चा वहन करने के लिए संघर्ष किया। कुछ छात्रों ने पिताजी की कमाई के खर्च पर तथा कुछ ने शिक्षा कर्ज लेकर कॉलेज की शिक्षा पूर्ण की।

 

उस जमाने में कॉलेज भी सीमित थी और कॉलेज शिक्षा प्राप्त करने के विद्यार्थी भी कम मात्रा में होते थे। अतः योग्यता अनुसार इंजीनियरिंग, मेडिकल या प्रोफेशनल शिक्षा प्राप्त की, उसके पश्चात् सरकारी नौकरी मिल गई।

 

नौकरी शुरू करने के बाद घर बसाने की कवायद शुरू हुई। माता पिता ने अधिकतर मामलों में हमारा बाल विवाह किया था। अतः गौना कर धर्मपत्नी को भी शहर में साब से आए। उस जमाने में कनिष्ठ अभियन्ताको 200 रुपए प्रतिमाह तथा अध्यापक को करीब 100 रुपए मिलते थे। उस तनख्वाह से मकान किराया पर खर्च आदि से जिन्दगी शुरू हुई। फिर बात बच्चों की परवरिश का बोझ पड़ा। बच्चे थोड़े बड़े हुए उसी हिसाब से उनकी शिक्षा का इंतजाम किया गया। अपने स्वयं के खचों में कटौती कर बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाई ताकि वे भी कॉलेज

 

की शिक्षा प्राप्त कर अपने से बेहतर जिन्दगी जी सकें। अब उसके बाद बच्चों की उच्च शिक्षा के कारण अच्छी नौकरी लग गई और दूसरे शहरों में जाकर रहने लग गए। अच्छी नौकरी के कारण समाज के धनाढ्य वर्ग के लोगों के साथ शादी-विवाह के रिश्ते हो गए।

 

इस पीढ़ी के व्यक्ति समय बीतने के बाद सेवानिवृत्त हो गए और जिस शहर में उम्र निकाली उसी जगह पर हैसियत के लायक मकान बनाकर रहने लग गए। लेकिन लड़का उच्च वर्ग की लड़की के चक्कर में आकर माँ-बाप से दूरी बनाकर, सास-ससुर की तरफ ज्यादा ध्यान देता है। माँ-बाप यानि यह पीढ़ी यह सब देखकर अन्दर से दुःखी होती है, लेकिन लोगों के सामने बेटे के अच्छी तनख्वाह बता बताकर संतोष करते हैं। बहुत ही कम मामले मिलते हैं कि जिस संघर्ष से इस पीढ़ी ने मुकाबला किया, उनके बच्चे वापिस वैसी श्रेणी की सेवा करते हैं।

 

लेकिन मैं आपको एक जान-पहचान के पुरोहित परिवार का किस्सा बताता हूँ। उस लड़के के पिताजी गाँव के थे और गाँव में हाई स्कूल तक पढ़ाई की। लेकिन उसके बाद पिताजी का देहावसान हो गया। माँ ने देखा बेटा होनहार है, अतः वह उस बच्चे को लेकर जोधपुर आ गई और मकान किराए लेकर लड़के को मेडिकल शिक्षा (एम.बी.बी.एस.) दिलाई। बेटे को सरकारी नौकरी मिल गई। कुछ वर्षों बाद उसकी शादी माँ की इच्छानुसार गाँव की लड़की से हो गई। जो कि जोधपुर से ही गाँव से शहर आ गए थे। फिर डॉक्टर अमेरिका चला गया और वहाँ डॉक्टरी प्रेक्टिस चालू कर दी। अच्छे पैकेज की वजह से वह वहीं बस गया और जोधपुर की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। कालान्तर में माँ को अमेरिका साथ ले गया। कुछ समय बाद माताजी का मन वहाँ नहीं लगा और उनके इच्छानुसार जोधपुर शिफ्ट कर दिया। जोधपुर में माँ के रहने के लिए मकान बनाया तथा उनके लिए, कार, ड्राईवर व नौकरानी की व्यवस्था जोधपुर में कर दी। जिसका पेमेन्ट डॉक्टर अमेरिका से करता रहता। माताजी की पूरी संभाल की और अमेरिका से बार-बार आकर माताजी के अंत समय तक इतनी सेवा की कि माताजी तहेदिल से आशीष देती रही। कितना सुन्दर उदाहरण पेश किया मेरे साथी डॉक्टर ने ।

 

-Er. Tarachand

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Struggling Generation

सच्चा संन्यासी

स्वामी विवेकानंद पहली बार खेतडी (राजस्थान) गए। ये एक मैदान में वृक्ष के नीचे ठहरे और अपना व्याख्यान, उमडी जनता के सामने सुबह-शाम देने लगे। तीसरे दिन एक प्रौढ़ जिसके वस्त्र जीर्ण थे आया और हाथ जोड़कर स्वामी जी के सम्मुख खड़ा हो गया। स्वामीजी मधुर स्वर में बोले- ‘बोलो भाई. क्या कहना चाहते हो?”

 

अधेड निकट आकर बोला- ‘स्वामीजी आपके पास कौन सी जड़ी-बूटी है, जो आपको सशक्त बनाए रखती है।’ स्वामी जी ने पूछा- ‘भाई तुम किस जड़ी-बूटी की बात करते हो? अधेड बोला- ‘आप तीन दिन से प्रवचन कर रहे हैं, किन्तु आपने कुछ खाया नहीं. लोगों से बातचीत भी कर रहे हैं, आप भूख मिटाने के लिए कौन सी जड़ी का प्रयोग कर रहे है? भूख और प्यास लगती है, परंतु मांगने के लिए में घर-घर नहीं जाता हूं और यहां किसी ने भोजन के लिए पूछा भी नहीं आपका मन पवित्र है और आपने इस बात को समझा है।

 

अधेड़ हिम्मत करके बोला- स्वामी जी मैं गरीब चमार हूं। आपको सामान ला देता हूं आप स्वयं भोजन बना लीजिए। स्वामीजी के नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आए बोले- भाई, सन्यासी के लिए जाति-बिरादरी का कोई भेद नहीं है। हम तो पशु-पक्षियों में भी परमात्मा का अश देखते हैं। आप भी पवित्र हैं। जैसा भी घर में भोजन हो, आप ले आएं, मिलकर दोनों खाएंगे। अधेड मैदान के किनारे बनी अपनी झोपड़ी में गया और दाल-चावल बनाए और लोट आया। दोनों ने अपार आनंद के साथ भोजन करने लगे। प्रसिद्धि खेतड़ी के राजा के पास पहुंची, उन्होंने स्वयं स्वामी जी को तन-मन-धन से सहयोग देकर शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका भेजा और उनका सारा खर्च वहन किया।

 

अंगिरा ऋषि के वंशज कहाने वाली जांगिड ब्राह्मण समाज के हमारे पूर्वजों ने भी इसी तरह घर-घर मांगकर पेट भरने के बजाए काष्ठ कला में निपुणता प्राप्त कर जीविकोपार्जन किया, जो कि हमारे लिए गौरव की बात है।

 

-Er. Tarachand

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A True Ascetic