समाज सुधार के कुछ उदाहरण

राजस्थान राज्य विद्युत मंडल में सेवारत रहते बहुत से जिलो में पदस्थापित रहा तथा विभिन्न जातियों के प्रमुखों से मिलता तथा उनके द्वारा समाज सुधार के किये गये कार्यों को नजदीक से देखने का मौका मिला। कुछ उदाहरण आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैं

 

(1) राजपुरोहित समाज यह समाज अब अपने बलबूते पर काफी संगठित हो चुका है और उसमें उनके धर्मगुरु संत खेताराम जी महाराज का काफी योगदान रहा। श्री मोहनसिंह जी राजपुरोहित बीकानेर पशु विश्वविद्यालय में डीन रहे। उनके कार्यकाल में उन्होंने अपने समाज के युवा छात्रों को पशु चिकित्सा की तरफ प्रेरित किया। इस वजह से आज राजस्थान सरकार में राजपुरोहित समाज के काफी पशु चिकित्सक मिल जायेंगे। एक शादी समारोह में सन् 1981 में मेरा उनसे जयपुर में मिलना हुआ था। वे जाति की वेशभूषा कुर्ता धोती तथा साफा बांधे हुए थे। उनके पास सोफा सेट, कुर्सियां रखी हुई थी, लेकिन वे उन पर न बैठ कर समाज के लोगों के साथ जाजम पर बैठे बातें कर रहे थे। ऐसी उनकी सादगी तथा समाज के प्रति आदरभाव था।

 

(2) माथुर समाज : एक माथुर साहब के ऑफिस में उनकी जाति का ही चपरासी था, जो कि शाम के समय अफसर के घर सरकारी काम से जाता था तो अफसर तो कुर्सी पर बैठे मिलते। और वह चपरासी जाजम पर बैठ जाता था। कालान्तर में उस अफसर के लड़की की सगाई उस चपरासी के इंजीनियर लड़के से हो गई। सगाई के बाद वही चपरासी उसी अफसर के घर ऑफिस के काम के लिए जाते, तो माथुर साहब चपरासी को सोफे पर अपने पास बैठाते। कहते, आप ऑफिस में चपरासी, पर घर पर समधी हो।

 

(3) चौधरी समाज मैं पाली जिले का निवासी हूं। मैं बचपन में देखता था कि चौधरी समाज के लोग खेतीबाड़ी का काम करते और अधिकतर पहनावे में आधी धोती, ऊपर खुला बटन तथा सिर पर छोटा-सा साफा पहनते थे। होली-दिवाली या शादी बगैरह उत्सवों में कुर्ता/अंखरखी पहनते थे। कालान्तर में उनके धर्म गुरु ने उन्हें व्यापार की तरफ अग्रेसित किया। और युवा पीढ़ी दुकानों पर नौकर की तरह काम करने लगे। एक गांव का किस्सा बताता हूँ। सन् 1973 में, मैं फालना में सहायक अभियन्ता पद पर था, तब तक गांव के बाजार में सब जैन की दुकानें थी तथा अधिकतर नौकर चौधरी समाज के लड़के थे। सन् 1991 में फिर फालना अधिशाषी अभियन्ता के तौर पर पदस्थापित हुआ तो एक दिन उपरोक्त गांव का निरीक्षण किया। मैंने देखा कि पूरा मार्केट चौधरी समाज के कब्जे में आ गया। मालूम किया तो पता चला कि जब जैन समाज के लोग जैसे-जैसे गांव छोड़ कर बम्बई, पूना, अहमदाबाद की तरफ जाते रहे, वैसे वैसे ही उन दुकानों को चौधरी समाज के नौकर जो ईमानदार तथा वफादार थे, उनको देते रहे। इस तरह समाज में जाग्रति आई और पैसे वाले बन गये और आज वे ही लाखों रुपये समाज के छात्रावास, धर्मशालायें आदि के निर्माण में दान करने की हैसियत रखते हैं।

 

(4) जैन समाज : बाड़मेर में एक सेठजी के दो लड़के थे। बड़ा लड़का कांग्रेस पार्टी में तथा छोटा लड़का भाजपा में। सन् 1980-81 में श्रीमती इन्दिरा गांधी का बाड़मेर दौरा हुआ और उनके तराजू में सिक्कों से तोलने का कार्यक्रम हुआ। सेठ जी का बड़ा लड़का तराजू पर तौलने में अग्रणी था। फिर सरकार बदली। फिर कुछ महीनों बाद श्री लालकृष्ण आडवाणी का बाड़मेर आने का कार्यक्रम बना तो भाजपा कार्यकर्ताओं की तरफ से उन्हें भी सार्वजनिक स्थान पर तराजू में सिक्कों से तौलने का कार्यक्रम चल रहा था। मैंने देखा कि सेठजी का छोटा लड़का उस कार्यक्रम में अग्रणी कार्यकर्ता था। एक दिन वह सेठजी अपनी बिजली की समस्या के लिए मेरे पास आये, तो मैंने उन्हें पूछा, आप घर में दोनों बेटों का, एक कांग्रेस व दूसरा भाजपा विचारधारा वाला, किस तरह सामंजस्य बैठाते हो। उन्होंने बताया कि जब राज्य में कांग्रेस की सरकार होती है तो बड़े लड़के को दुकान से फ्री करके राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए भेज देते हैं और इसी तरह जब भाजपा की सरकार बनती हैं तो बड़ा लड़का मेरे साथ दुकान पर बैठ जाता है और छोटा लड़का दुकान से मुक्त होकर भाजपा की राजनैतिक गतिविधियों में सक्रिय रहता है। इस तरह चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, अपनी दुकान उसी रफ्तार से बिना रुकावट के चलती हैं और दोनों पार्टियों के नेता मेरे से रामासामा करने दुकान पर आ जाते हैं।

 

इस सोच से जांगिड समाज दूर है। अपने समाज के लोग राजनैतिक विचारधारा के कारण एक दूसरे से कटे रहते हैं और असहयोग की भावना रखते हैं। इस वजह से समाज संगठित नहीं हो पाता। अपने समाज के लोग स्वयं बहुत होशियार, तकनीकी विद्या में पारगंत, लेकिन सामूहिक रूप से कमजोर है इसलिए राजनैतिक पार्टियां प्रधान, विधायक पदों के लिए टिकट नहीं देती। समाज के करीब 15-20 प्रतिशत लोग सरकारी नौकर, उद्योगपति, धनाढ्य, अच्छे बिल्डर बन गये हैं। बाकी 80 प्रतिशत समाज के सदस्य गांवों में तथा शहरों में पैतृक धंधे से रोज मजदूरी कर अपना व परिवार का भरण पोषण करते हैं, जैसा 40-50 साल से चला आ रहा है। इस तरह आर्थिक तथा राजनैतिक उन्नति नहीं कर पा रहे हैं।

 

अतः मेरा समाज के अग्रणी नेतागण, उद्योगपति, नौकरी में कर्मचारी/अधिकारी, भामाशाह, शिक्षाविद् से निवेदन है कि उपरोक्त वर्णित राजपुरोहित, माथुर, चौधरी व जैन समाज की तरफ देखें और उनकी तरह समाज को हर मोर्चे पर संगठित करें, पिछड़े वर्ग को आगे लावें, तभी समाज का विकास संभव है।

 

-Er. Tarachand

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Some Examples of Social Reform

साथी हो तो ऐसा

यह प्रसंग उस समय का है, जब जोधपुर शहर में मेडिकल कॉलेज स्थापित नहीं हुआ था। उस समय एक डॉक्टर परिहार (बदला हुआ नाम) लखनऊ से एम.बी.बी.एस. कर जोधपुर आए थे। उन्हें चिकित्सा विभाग ने जोधपुर शहर के महिला हॉस्पिटल में पदस्थापित कर दिया। इत्तफाक से उसी हॉस्पिटल में उनके पिताजी चपरासी के पद पर सेवारत थे जब डॉक्टर साहब हॉस्पिटल में ड्यूटी के समय कमरे में कुर्सी पर बैठते थे, तब उनके पिताजी बाहर स्टूल पर बैठकर अपनी राजकीय सेवा किया करते।

 

मोहल्ले वाले पूछते “बासा” आपको नौकरी अपने पुत्र के अधीन करते दिक्कत नहीं आती? बासा कहते अस्पताल में डॉक्टर मेरा अफसर है और मैं उनके अधीन कर्मचारी फिर दिक्कत कैसी? अतः डॉक्टर का आदेश मानना ही चपरासी की नौकरी है, जो मैं आराम से कर रहा हूँ। घर में मैं उसका बाप हूँ और डॉक्टर को बेटे की तरह हुक्म मानना पड़ता है और इसमें उसको कोई परेशानी नहीं। हालांकि यह क्रम थोड़े महीने ही चला और जब विभाग के ध्यान में आया तब उपरोक्त डॉक्टर का स्थानान्तरण दूसरे शहर में कर दिया।।

 

उसके बाद परिहार के पिताजी उस अस्पताल में अपनी सेवाऐं देते रहे। दो साल बाद पिताजी के पीठ में गाँठ हो गई और उसे दिखाने महात्मा गाँधी अस्पताल में शल्य चिकित्सक को दिखाने जाते और दवाईयाँ लेते रहे, लेकिन कोई खास आराम नहीं मिला। एक दिन वे कनिष्ठ विशेषज्ञ (सर्जन) को अपनी तकलीफ दिखाकर लौट रहे थे, तब डॉ. भंडारी जो कि उस समय वरिष्ठ शल्य चिकित्सक थे ने उन्हें जाते हुए देखा। डॉ. भंडारी ने दूसरे चपरासी को भेजकर उस व्यक्ति को वापस बुलाया। डॉ. भंडारी डॉ. परिहार के साथ लखनऊ में पढ़े थे और फिर मोहल्ले के पुराने साथी थे।

 

डॉ. भंडारी ने डॉ. परिहार के पिताजी को दोबारा चैक किया और बताया कि आपके गाँठ का इलाज ऑपरेशन के द्वारा ही होगा। पिताजी ने बताया कि जब मेरा बेटा जोधपुर छुट्टी पर आएगा, तब आपसे बात कर लेगा। डॉ. भंडारी ने बताया कि आपका बड़ा बेटा में स्वयं यहाँ उपस्थित हूँ आपको किसी तरह की दिक्कत नहीं रहेगी। डॉ. भंडारी ने उनका ऑपरेशन किया जो सफल रहा और डॉ. भंडारी ने उनकी रोज दवाई व पट्टी बंधन का काम नर्स को रोज ड्यूटी के बाद अस्पताल से आकर उनके घर भेजते और शाम को रोज खुद उनके घर

 

जाकर संभालते और इस तरह चपरासी होते हुए भी अपने साथी डॉक्टर के पिताजी को ठीक कर दिया। डॉ. परिहार से एक दिन उनके 80 वर्ष के पड़ाव पर मिलने का मौका मिला। मैं भी अपने इंजीनियरिंग कॉलेज पढ़ाई के समय से उनसे

 

परिचित था तथा उनके पड़ोस के मोहल्ले में रहता था। बातों-बातों में पुराने समय को याद करते हुए उन्होंने बताया कि किस तरह डॉ. भंडारी साथी ने पिताजी का मेरी अनुपस्थिति में ऑपरेशन कर दिया। यह तारीफे काबिल है। आगे बताया कि जब मैं पिताजी के ऑपरेशन होने के बाद जोधपुर छुट्टी पर आया तो पिताजी अस्पताल नौकरी पर गए हुए थे। तो सोचा कि इस समय डॉ. भंडारी को महात्मा गाँधी हॉस्पिटल में ही मिलकर आ जाता हूँ। दो-तीन घंटे तक गप्प-शप्प होती रही, मोहल्ले के पुराने साथी जो ठहरे। लेकिन उन्होंने मुँह से यह नहीं बताया कि मैंने तुम्हारे पिताजी के पीठ की गाँठ का ऑपरेशन तुम्हारी अनुपस्थिति में ही कर दिया तथा पूरी सार संभाल की।

 

उस जमाने में टेलीफोन व्यवस्था नहीं थी और पोस्टकार्ड द्वारा समाचार में पन्द्रह-बीस दिन बाद मिलते थे। उपरोक्त वाक्या के बारे में जब पिताजी ड्यूटी से घर आए और मुझे पूरा वृतान्त सुनाया तो मैं डॉ. भंडारी के कृत्य से अभिभूत हो गया, ऐसे साथी कहाँ मिलते हैं? यह कहकर उस दिन उनकी मुलाकात का समापन हुआ, दोनों डॉक्टर काफी वर्षों पहले देवलोक गमन कर चुके हैं, उन्हें बार-बार नमन ।

 

-Er. Tarachand

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The Ideal Friend

सास भी कभी बहू थी

सास-बहू के बीच कटुता वाला रिश्ता वर्षों से चला आ रहा है। इस वजह से खुद परेशान होते है। जिससे पारिवारिक वातावरण दूषित होता है, बच्चे कुंठित होते है।

 

गाँवों में एक किस्सा आज भी प्रचलित है। पहले औरतें घरों में गायें रखी जाती थी और दही जमाकर बिलौना कर घी तैयार करती थी और पीछे जो छाछ (मट्ठा) रहती थी, उसे मौहल्लेवासी औरतों को निःशुल्क वितरित की जाती थी। एक बार सासुजी घर के बाहर गई हुई थी। मोहल्ले के अंतिम छोर पर रहने वाली बुजुर्ग महिला उस घर छाछ लेने आई, बहू ने कहा- अब छाछ नहीं बची हैं जब वह औरत अपने घर लौट रही थी उस बहू की सास मिल गई। पूछा कहाँ गई थी?

 

बुजुर्ग महिला ने बताया कि मैं तुम्हारे घर छाछ लेने गई थी, लेकिन बहू ने कह दिया कि छाछ नहीं है। सास ने उस औरत को कहा, मेरे साथ चलो, बहू तुम्हें छाछ के लिए कैसा मना कर सकती है? दोनों घर पहुंचे और उस महिला को बाहर के कमरे में बैठाकर अन्दर पूछताछ करने बहू के पास पहुंची। बहू ने सास को बताया कि छाछ खत्म हो गई है। सास ने कहा-काई बात नहीं। उसने बाहर के कमरे में बैठी महिला से कहा कि छाछ खत्म हो गई है। महिला ने कहा- मैंने तुम्हें पहले ही यह बात बता दी थी तो मुझे वापस अपने साथ घर लाने की क्या जरूरत थी? सास ने कहा बहू को मना करने का अधिकार नहीं है, इस घर से मना करना होगा तो मैं करूंगी। इस तरह का वर्चस्व सास-बहू के ऊपर रखना चाहती है।

 

बचपन में हम देखते थे कि गाँवों से रसोई के खाने-पीने के समान को भी सास अपने ताले में लगाकर रखती थी। खाना बनाने के पहले साथ अपने हिसाब से सामान बहू को देकर फिर सामान के कोठे पर ताला लगाकर रखती थी। जब सास गुजर गई और वह बहू बड़ी होकर सास बन गई तो उसने अपनी बहू के साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा उसकी सास ने उसके साथ किया था और ऐसा पीढ़ी दर पीढ़ी सास बहू के बीच वैमनस्यता तथा अविश्वास चलता रहता था।

 

गाँवों के पढ़े-लिखे लोगों ने शहरों की ओर पलायन किया तो धीरे-धीरे सास-बहू के रिश्तों में कुछ सुधार आने लगा।

 

पढ़े-लिखे सास-बहू सभी सुधर गये हो, ऐसी बात नहीं है जोधपुर में ओसवाल समाज की बात बतावें। एक बाप के दो बेटे हैं, बाप व्यापार करता था। बाप प्रौढावस्था में आया और उसे महसूस हुआ कि उसके द्वारा संचालित व्यापार घाटे में है अतः उसने पुत्रों से कहा कि एक भाई तो वर्तमान व्यापार समाल लो और दूसरा पढ़ा लिखा लड़का नौकरी कर ले और उसकी बहू भी पढ़ी-लिखी है, अतः वह भी नौकरी कर ले तो दोनों का भविष्य सही ढंग से बीत जायेगा। बड़े भाई को पुरानी दुकान और धंधा सौंप दिया और छोटा लड़का व बहू अध्यापन कार्य करने लगे। कुछ वर्षों के बाद छोटे लड़के के आवसन मण्डल से मकान आवंटित हो गया। छोटे लड़के ने अपने माताजी के देहावसान के बाद पिताजी से कहा-आप अपनी जमा पूंजी मुझे दे दो। मेरा भी अलग घर बन जायेगा। और आप मेरे साथ नये घर में रहना। बाप-बेटे की मीठी-मीठी बातों में आ गया और अपनी जमा पूंजी छोटे बेटे को सौंप दी। सालभर तो बाप आराम से रहा, फिर बहू ने अपना तांडव नृतय शुरू कर दिया। ससुर के साथ अभद्र व्यवहार, खाने-पीने की अव्यवस्था तथा प्रताड़ना इस तरह शुरू की कि बाप अत्यधिक परेशान हो गया और आखिर उसे अंतिम समय वृद्धाश्रम में गुजारना पड़ा।

 

पढ़े लिखे परिवार मे अच्छे संस्कार वाली बहू भी देखने को मिली। एक स्थान पर हमारे परिचित ब्रिगेडियर साहब के घर एक दिन मैं मिलने गया। बातों-बातों में एक पत्र का जिक्र आया तो ब्रिगेडियर साहब ने एक स्त्री से कहा- पुषु (पुष्पा का लाडला नाम) चार दिन पहले जो बड़े भाई साहब का पत्र आया था वह ढूंढ कर लेकर आ उनके व्यवहार को देखकर मैंने ब्रिगेडियर साहब से पूछा यह आपकी बेटी है क्या? उन्होंने कहा मेरी पुत्रवधु है और मेरा बेटा बार्डर पर तैनात है। उस दिन मुझे अहसास हुआ कि अगर बहू के साथ सास व ससुर अपनी बेटी समकक्ष व्यवहार करें तो सास-बहू के झगड़े काफी खत्म हो सकते हैं।

 

आप ताज्जुब करेंगे कि मेरे एक साथी की श्रीमतीजी अपनी पुत्र वधु से बेटी से भी ज्यादा प्यार करती हैं। जब सास बहू को अपनी पीहर चार-पांच दिन मिलने के लिए भेजती है। सास जब जल्दी आने का कारण पूछती है तो बहू कहती है- मम्मीजी आपके बिना मेरा मन नहीं लगता।

 

क्या ही अच्छा हो उपरोक्त ब्रिगेडियर साहब तथा सास के रूप में उपरोक्त मेरे साथी की श्रीमती की बहू के व्यवहार की तरह अन्यजन भी अपना व्यवहार बनायें तो घर की सास बहू की कटुता की कहानी पर अंकुश लग जाएगा। आज मैं पाठक बंधुओं से निवेदन करता हूँ कि वे अपनी पुत्र वधु को पुत्री का दर्जा देवें, सास अपनी पुत्रवधु को विश्वास में लेवें। पुत्रवधु सास-ससुर को पापा-मम्मी समझे तो इस समस्या का समाधान अवश्यंभावी है।

 

-Er. Tarachand

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Mother-in-law was also a Daughter-in-law

सेवा निवृत्ति के बाद हीन भावना

अक्सर देखा गया है कि सरकारी/अर्ध सरकारी नौकरी से सेवा निवृत्ति के बाद अधिकारी/कर्मचारी हीन भावना के शिकार हो जाते हैं।

उदाहरण के तौर पर बताता हूँ कि दस वर्ष पूर्व जयपुर अपने लड़के से मिलने गया था। उस समय शाम के समय हमारे कॉलोनी के पास एक बगीचे में घूमने गया तो इत्तिफाक से मेरे विभाग के इंजीनियर मिल गए, जो मेरे पूर्व परिचित निकले। उन्होंने बातों-बातों में बताया कि मैं इसी साल सेवानिवृत्त हुआ हूँ और सामने वाली कॉलोनी में रहता हूँ। मैंने इच्छा प्रकट की कि कल सुबह मैं आपके घर मिलने आऊँगा। उस इंजीनियर बंधु ने बताया कि आप आ जाना, लेकिन कॉलोनी में मेरा घर वगैरह पूछो तो आप बताना मत कि मैं सेवानिवृत्त हो गया हूँ। मैंने अभी कॉलोनी में बताया नहीं कि मैं रिटायर्ड हो गया है, मैं पूर्व कि तरह 10 बजे तैयार होकर घर से निकलता हूँ ताकि कॉलोनी वाले नमस्ते करते रहें।

उस साथी को 35-36 वर्ष की सेवा में रहते हुए उपभोक्ता जब भी मिलते थे, तो नमस्ते करते थे सामान्य प्रक्रिया है, फिर काम की बात करते थे। उस व्यक्ति को नमस्ते की पिपासा खत्म नहीं हुई, उसे में हीन भावना ही समझता हूँ।

मेरा आंकलन है कि अगर आप सरकारी नौकरी में रहते हुए जनता से अच्छा सवाद रखें और उनके काम में रोड़े नहीं अटकायें, तो वह आपके सेवानिवृत्ति के बाद भी आप मिलोगे तो आदर सहित रामासामा (नमस्ते) करेगा।

उदाहरण के तौर पर मैं जयपुर के चौमू डिवीजन में सन् 1985 से 1990 तक रहा और जनता से अच्छा सम्मान पाया, क्योंकि मेरी कोशिश रही है किसानों के फसल के समय सही ढंग से बिजली मिले, ऑफिस में भी उपभोक्ता अपनी शिकायत लेकर आते, तो उसे पूर्ण संतुष्ठ करने की कोशिश करता।

उपरोक्त मुलाकात के तीन दिन बाद में जयपुर जी.पी.ओ. एम.आई. रोड़ पर सड़क किनारे खड़ा था और टैक्सी का इंतजार कर रहा था। कुछ समय बाद गलत दिशा से मेरी ओर तीन चार किसानों से भरी टैक्सी आती दिखी तो मैंने सोचा कि शायद ब्रेक फेल हो गए हैं, मैं थोड़ा पीछे हटा। मैंने देखा कि वे किसान तथा सरपंच उतरे जो रामपुरा डाबड़ी गाँव के होने वाले बताए और नमस्ते हुई। उन्होंने बीस वर्ष बीतने के बाद भी मुझे दूर से पहचान लिया। इसलिए ड्राईवर को गलत दिशा में मुड़कर मेरे पास मिलने के लिए आए हैं। उन्होंने आग्रह किया कि मैं आज उनके साथ उनके गाँव चलू और आपके बीस वर्ष पूर्व लगाए पौधे को देखूं । लेकिन उस दिन मुझे वापस जोधपुर लौटना था, इसलिए मैं तीन-चार महीने बाद उस गाँव गया। सरपंच ने पौधे की बात की तो मुझे याद आया कि उस गाँव के एक श्रमिक की विद्युत दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। जब मैं चौमूं डिवीजन में अधिशाषी अभियन्ता था और रामपुरा डाबड़ी मेरे एक सब डिवीजन में पड़ता था। मैं भी अपने सहायक अभियंता, कर्मचारियों के साथ उस मृतक के दाह संस्कार में गया था। वहाँ उस दिन सरपंच ने बताया था कि विधवा गरीब परिवार से है और यहाँ पर कोई जमीन जायदाद नहीं है। पढ़ी-लिखी भी नहीं है, इसलिए अब ये विधवा भीख मांगेगी। भगवान की कृपा रही कि मेरे दिमाग में उसकी मदद करने की इच्छा प्रबल हुई। मैंने अपने अधीनस्थ अभियन्ताओं, श्रमिक नेताओं से बात की और उस विधवा को मदद की बात की, तो सब सहर्ष बिना किसी वाद-विवाद के पूर्ण सहमत हो गए। पाठकगण, आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि चौमूं खंड के सभी अभियन्ता, कर्मचारी व श्रमिकों के आर्थिक सहयोग से गाँव रामपुरा डाबड़ी में एक चौटे में खाली प्लाट शायद 25 बाय 50 का विधवा के नाम पर खरीदा। दो कमरे, रसोई, लेट-बाथ तथा बाउण्ड्री पूर्ण निर्माण करवाया तथा बिजली-पानी का कनेक्शन करवाए। उस विधवा को करीब 86000/- रुपए मृत्यु उपरांत क्षति पूर्ति रकम दिलवाई, विद्युत विभाग में सरकारी नौकरी दिलवाई। गाँव में एक भव्य आयोजन करवाया गया। विधायक द्वारा विधवा को भवन भेंट किया तो गाँव वालों ने उस दिन करीब 300 व्यक्तियों को भोजन की व्यवस्था की थी। हमारे तत्कालीन अधीक्षण अभियन्ता तो इतने भाव विभोर हो गए कि उन्होंने कहा मैं अब भाषण देने की स्थिति में नहीं हूँ ।

इस तरह का व्यवहार अगर जनता से सरकारी अफसर/ कर्मचारी रखें तो मेरे ख्याल से ऐसी जनता आपको सेवा निवृत्ति के बाद भी रामासामा करेगी। क्यों ठीक कहा न मैंने ?

 

-Er. Tarachand

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Inferiority Complex after Retirement